Posts

Showing posts from 2016

पूँजीवाद और समाजवाद का मिक्स नॉनवेज पुलाव : वामपंथ

मार्क्सवाद दरअसल जर्मन दार्शनिक हीगल के द्वंद्ववाद, इंग्लैंड के पूंजीवाद और फ्रांसीसी समाजवाद का "मिला-जुला नॉनवेज पुलाव" है। इसमें यूरोपीय सामंती भावना, सबसे उच्च होने का दंभ भी रहा है और भारत, भारतीयों के प्रति हीनभाव भी। यही वजह है कि वामपंथ भारत के स्वाभाविक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोधी है। ऐसा उसके मूल आयातित चरित्र के कारण जन्मना है। तो वहीं कांग्रेस... 1857 के गदर से सहमी कंपनी सरकार के ही अधिकारी ए ओ ह्यूम के हाथों अस्तित्व में आने और हितसाधन के बाद आगे.... तिलक, गांधी, विपिन चंद्र पाल, सरदार पटेल का नेतृत्व पाकर भी राष्ट्रवादी नहीं हो सकी। अपनी नियति के चलते वह आजादी के आंदोलन से राजनीतिक पार्टी और आगे चल कर एक खानदान की प्रॉपर्टी बन गई। कांग्रेस और वामपंथ चरित्र में एक हैं। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म रूसी क्रांति की प्रेरणा से नवंबर 1925 में कांग्रेस अधिवेशन की छाया में हुआ था। भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन कांग्रेस का बायां हाथ पकड़कर आगे बढ़ा। कांग्रेस ने उसे फलने-फूलने के अवसर दिए। भारतीय वामपंथ को सत्ता के छायावाद में पाले जाने की परंपरा और उनके स्

महज एक कैम्पस भर बिसात वाले वामपंथ ने आखिर जेनयू में हराया किसको ?

बधाई हो कामरेड ! जेनयू में तेज चलती खिलाफत की आंधी में.... पेंग्विनों की तरह एक दूसरे के संग लिपट-चिपट के अस्तित्व रक्षा की जुगत करते हुए....सारे वाम फेडरेशनों ने गिरोह की शक्ल में एक होकर... चुनावों में आखिर हराया किसे है ? राष्ट्रवाद को या वाम द्वारा सर्वहारा समाज की पहचान दिए हुए दलित फेडरेशन.....बापसा (बिरसा-फूले-अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन) को ? सीटवार वोटों की संख्या देखिये और हर जगह बापसा को मिले मत देखिये। जेनयू में वाम ने दिखाया कि वह अब दलितों के मुक़ाबिल खड़ा है मैदान में। तो दलितों, वंचितों, आदिवासियों ने... वामपंथ की दूकान से अलग हो... खुद के स्वतंत्र अस्तित्व का निर्माण किया। रही बात एवीबीपी की, तो यह संगठन जेनयू छात्र राजनीति में अपनी सतत जगह बना रहा है जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता। चिंतन करिये इस ऐतिहासिक दुर्घटना पर : यह वाम दर्शन की जीत है या हार ? पढ़िये बापसा का जेनयू चुनावों में अध्यक्ष पद प्रत्याशी राहुल क्या कहता रहा अपनी कैम्पेनिंग में : आरक्षण से लेकर, हॉस्टल, स्वास्थ्य सुविधाएँ, गैर-अंग्रेजी माध्यम से आए छात्रों के साथ भेदभाव, वाइवा में वंचित समुदाय क

तारिक फ़तेह ने जब बयान की सच्चाई तो झुंझलाए मुन्नवर राना ने यूँ खीझ मिटाई :

कल तारिक फतेह साहेब को एक टीवी शो की अदालत में बोलते हुए सुना और उस पर मुन्नवर राना साहेब का बतौर जज सुनाया फैसला भी। ठेठ पंजाबी मुस्लिम तारिक फतेह, जिन्हें मैं कुछ सालों से फॉलो करता और पढ़ता रहा हूँ.... जब यह खरा और नंगा सच सामने रख रहे हों कि : साहेब ! आपने पाकिस्तान बना के अलग किसे किया ? उन पंजाबियों, सिंधियों, बलूचियों और बंगालियों को..... जिनका इस्लाम एक मजहब के सिवाय..... उर्दू जुबां और संस्कृति से कोई वास्ता ही न रहा कभी ? "आँगन की चारपाई पर वो सूखती मिर्च छोड़ आए हैं".... जैसी भावपूर्ण लाइनें रचने वाले मुन्नवर साहेब.... भला तारिक साहेब के लिए और क्या कहते.... अगर लॉफ्टर के कलाकार न कहते तो ! ऐसा कहने के पीछे उनका जाती मामला है जिसका अंदाजा शायद नीचे आपको हो, जिसे मुझ जैसा अदना फेसबुकिया भी सालों से यहीं लिखता रहा है। बटवारे में रेडक्लिफ साहेब ने नक्शे में जो लाइनें खींच के हिस्सा किया उस हिस्से में दरअसल.... आबादी के लिहाज से बहुसंख्यक लेकिन सांस्कृतिक तौर पर एकदम अलहदा... वे मुसलमान आये जिन्होंने कभी जिन्ना के मुस्लिम लीग को आजादी के पहले के आम चुनावों में...

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दो आयाम : अलगाववादी क्षेत्रवाद बनाम एकीकृत राष्ट्रवाद और असम :

असमिया राष्ट्रवाद की उपज बहिरागत आंदोलन के साथ सांस्कृतिक संगठन के तौर पर आरएसएस का शुरूआती दौर से जुड़ाव और राजनैतिक मोर्चे पर भाजपा के साथ... तीन दशकों के जमीनी काम ने असम के क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन बहिरागत को आज भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित किया है। सांस्कृतिक जमीन पर राजनैतिक सक्रियता के जरिये.. सकारात्मक और क्षेत्रीय असमिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को शासन-सत्ता का बल देने के काम में भाजपा ने खुद को तैयार किया और असम राजनैतिक सत्ता में राष्ट्रवादी सरकार देखने जा रहा है। इस सबके बीच जो बेहद महत्वपूर्ण बात है... कि क्षेत्रीय राष्ट्रवाद जैसे आंदोलन से निकली असम गण परिषद और आज़ादी से पहले से वजूद में रहे असम छात्र संगठन 'आसू' से निकले इसके नेता प्रफुल्ल कुमार मोहंती इस सत्ता के साथ है। यह कोई छोटा संकेत नही है। 1971 की जनगणना में जब असम में असमी मूल, असमी भाषी लोगों की जनसंख्या 49% रह गयी तब पहली बार असम का ध्यान इस क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान पर खड़े संकट पर गया। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भा

आईने बदलिए और याद रखिए, ये साल 90 नहीं है।

तारीख : 19 जनवरी, 1990 जगह : पूरी कश्मीर घाटी विषय : आजादी "यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा" : "आजादी का मतलब क्या, ला इलाह इलिल्लाह" : "कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है" : "असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान" (हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना)। 14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया। टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी 90 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था। घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे। वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते

भारत 'से' नहीं ! भारत 'में' आजादी :

पंडित नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल तीन गैर कांग्रेसी लोगों में बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर एक वकील, विधि विशेषज्ञ के तौर पर और दूसरे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बंगाल के नामी राजनीतिज्ञ, हिन्दू महा सभा के नेता। तीसरे आर के सनमुखम चेट्टी, मद्रास के व्यापारी, आर्थिक क्षेत्र के जानकार थे। ये तीनों भारतीय आजादी की लड़ाई में कभी भी जेल नहीं गए। इनमे से एक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तथाकथित संदिग्ध मृत्यु / हत्या, आजाद भारत के साठ के दशक तक रहे गुलाम जम्मू-कश्मीर में हुई। एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे - यह नारा था डॉ मुखर्जी का जो कश्मीर में तिरंगा न फहराने और अलग प्रधानमन्त्री होने के विरोध में था। इस तरह एक निशान, एक प्रधान, एक विधान के नारे के साथ चलो श्रीनगर आंदोलन से कश्मीर को जमीन पर आजाद करवाने वाले पहले शहीद हुए इतिहास में। हकीकत यह भी है कि बंगाल में अगर डॉ मुखर्जी न होते तो 47 के बटवारे में पूरा बंगाल पूर्वी पाकिस्तान हुआ होता। दूसरे बाबा साहेब ने : संविधान निर्माता के तौर पर अपनी योग्यता का परिचय दिया। सबसे महत्त्व की बात जो उनके सामाजिक समता.. अवधारणा की

हिंसक कौन : केरल !

केरल में चुनावी हिंसा, हत्याओं का पुराना इतिहास रहा है। साल 2012 में सीपीएम के नेता रहे टी.पी. चंद्रसेखरन की काट-काट कर की गई बर्बर हत्या इसी सिलसिले की कड़ी कही जायेगी। अफ़सोस कि हाल के विधानसभा चुनावों से पहले और वाम एलडीएफ की जीत के बाद भी हिंसा-हत्या का सिलसिला कन्नूर तक चल ही रहा है। चौंकिएगा नहीं, राजनैतिक विरोध में टी.पी. चंद्रसेखरन की साल 2012 में क्रूर और मध्ययुगीन शैली ये यह हत्या, कम्युनिस्ट पार्टी... सीपीएम की ही तरफ़ से की गई, वजह ये कि चंद्रशेखरन ने पार्टी की नीत ियों की आलोचना कर एक दूसरी पार्टी, 'रेवेल्यूश्नरी मार्कसिस्ट पार्टी' बना ली थी। "सीपीएम लोगों की ज़िंदगी में घुस गया है, यहां तक की गांववालों को अपने घर की शादी में कांग्रेस-समर्थक दोस्त तक को बुलाने की आज़ादी नहीं है, अब ऐसे में लोगों और असलहे के बल के साथ आरएसएस अपना प्रचार करेगा तो हिंसा तो होगी ही" : यह कहना है सम्मानित मलयालम लेखक और राजनीतिक विश्लेषक पॉल ज़कारिया का। तो फिर सवाल उठता है केरल की राजनीति में हिंसा, इंसानी हत्याएं करता कौन है ? बीते चार दशकों के दौरान अकेले 200 से ज्या

अपने तय दीर्घकालिक राजनैतिक रास्ते पर है भाजपा

भा जपा ने असम नहीं, पूर्वोत्तर की सातों बहनों के प्रति स्नेह और बंधन का रिश्ता खोला है. असम, पूर्वोत्तर के उस गेट की तरह है जिसके घेरे के राज्यों के तमाम मरहले ऐसे हैं जिन्हें लंबे संदर्भों में देखा जाना है. ठीक वैसे ही, जैसे इसे असम में सकारात्मक ढंग से जमीन पर किया गया. असम में भाजपा की जीत इस पूरे क्षेत्र के लिए एक बड़ी सकारात्मक और दीर्घकालिक ऐतिहासिक परिवर्तन की शुरुआत है, जिसका दायरा विकास से लगायत संस्कृति तक होना है. बंगाल में ममता दीदी को मिली वोटर की मुहब्बत उसके वामपंथी दलों से नफरत की वजह से है. लेफ्ट के कांग्रेस के साथ आने ने वोटर के मन में वामपंथी सत्ता की दहशत की याद को ताजा कर दिया और इसे किसी कीमत पर रोकने के लिए उसने वोट तृणमूल को दे दिया. बंगाल के मतदाता में लेफ्ट के प्रति इस नफरत में थोड़ी भी कमी होती तो भाजपा के और भी बढ़े वोट प्रतिशत के साथ सीटों में भी अच्छी संख्या देखने को मिलती. केरल में चांडी के जाने की बुनियाद पर लेफ्ट गठबंधन का आना और इसके बीच भाजपा को राज्य में मिले वोट शेयर, राज्य की राजनीति में दीर्घकालिक परिवर्तन की आहट है. केरल की राजनीति में च

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दो आयाम : अलगाववादी क्षेत्रवाद बनाम एकीकृत राष्ट्रवाद और असम।

असमिया राष्ट्रवाद की उपज बहिरागत आंदोलन के साथ सांस्कृतिक संगठन के तौर पर आरएसएस का शुरूआती दौर से जुड़ाव और राजनैतिक मोर्चे पर भाजपा के साथ... तीन दशकों के जमीनी काम ने असम के क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन बहिरागत को आज भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित किया है। सांस्कृतिक जमीन पर राजनैतिक सक्रियता के जरिये.. सकारात्मक और क्षेत्रीय असमिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को शासन-सत्ता का बल देने के काम में भाजपा ने खुद को तैयार किया और असम राजनैतिक सत्ता में राष्ट्रवादी सरकार देखने जा रहा है। इस सबके बीच जो बेहद महत्वपूर्ण बात है... कि क्षेत्रीय राष्ट्रवाद जैसे आंदोलन से निकली असम गण परिषद और आज़ादी से पहले से वजूद में रहे असम छात्र संगठन 'आसू' से निकले इसके नेता प्रफुल्ल कुमार मोहंती इस सत्ता के साथ है। यह कोई छोटा संकेत नही है। 1971 की जनगणना में जब असम में असमी मूल, असमी भाषी लोगों की जनसंख्या 49% रह गयी तब पहली बार असम का ध्यान इस क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान पर खड़े संकट पर गया। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भ

यूनान का ग्रीस हो जाना

ग्रीस में बाल काटने का काम, खतरे के काम करने (रिस्की) की श्रेणी में आता है। यूनान (ग्रीस) के दिवालिया होने की खबर को हम केवल एक 'घटना' मानकर इससे सिर्फ इतना वाकिफ हैं कि ग्रीस कर्ज न चुका पाने के कारण दिवालिया हो रहा है। इससे अधिक जानने को न तो कोई इच्छुक है और न ही कोई मूल कारण जानना चाहता है। सच्चाई यह है कि इन दिनों यूनान में जो हो रहा है वह सोशलिज्म का ही विकृत हुआ रुप है। दुनिया में जहां भी हुक्मरानों ने अपने नागरिकों को राहत, सब्सिडी और रियायती रेट की खैरात बांटी है, वहां उसे हमेशा सामाजिक बदलाव के क्रांतिकारी रूप की मार झेलनी पड़ी है। यूनान के सोशलिस्ट व वामपंथी राजनीतिक दलों की एक दूसरे से वन-अप होने की होड़ और एक से बढ़कर एक रियायतों और पैकेज से लुभावन गुलदस्ते की स्पर्धा ने देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ तोड़कर रख दी। ग्रीस संकट की मूल जड़ 1999 का भीषण भूकंप और उसके बाद हुए 2004 ओलिंपिक खेल में है। भूकंप में देश की 50 हजार इमारतें क्षतिग्रस्त हुईं और लोकप्रियता पाने के लिए सरकार ने अपने खर्च से इन्हें बनवाने की घोषणा कर दी। ओलिंपिक सिर्फ पांच साल दूर थे और सर

गरीबों के लिए धर्म जरूरी है : बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर

गरीबों के लिए धर्म एक जरूरत है। संकटग्रस्त लोगों के लिए धर्म एक अति आवश्यक तत्व है। गरीब लोग सकारात्मक आशाओं के साथ जिंदा रहते हैं। अंग्रेजी के इस शब्द 'होप' का अर्थ होता है, आशा.. जीवन का स्रोत। अगर यह स्रोत नष्ट हो गया तो फिर जीवन कैसे चलेगा ? धर्म व्यक्ति को आशावादी बनाता है। और जो पीड़ा में हैं, गरीबी और अभाव में हैं उन्हें यह संदेश देता है कि घबराओ मत ; जीवन आशाओं को हासिल करने वाला होगा, जरूर होगा, उसे होना ही होगा। इस तरह गरीब और व्यथित लोग धर्म को अपने सकारात्मक आशावादी आधार के रूप में आत्मसात करके, पकड़ के चलने वाले लोग हैं। (14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाने के अगले दिन 15 अक्टूबर को दिए गए 2 घन्टे के भाषण का अंश) बाबा साहेब का यह पूरा भाषण मराठी में प्रबुद्ध भारत में 27 अक्टूबर को "नागपुर क्यों चुना गया" शीर्षक से छपा। भाषण देते समय बाबा साहेब बीमार थे और 6 दिसंबर 1956 को, लगभग दो महीनों बाद उनकी मृत्यु हो गयी। बाबा साहेब के भाषण के इस हिस्से से एक बात तो बखूबी साफ़ है कि वे भारतीय संदर्भ में धर्म को व्यक्ति के, समाज के, और

कार्ल मार्क्स का संप्रदाय और हम : बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर।

मानव सभ्यता के विकास के लिए धर्म बहुत ही जरूरी है। मैं जानता हूँ कार्ल मार्क्स के लेखन से एक संप्रदाय (Sect) का जन्म हुआ है। उनके पंथ (Creed) के मुताबिक धर्म कुछ भी नहीं और उनके लिए धर्म कोई मायने नही रखता। वे सुबह ब्रेड, क्रीम, बटर और मुर्गे की टाँग आदि ; का नाश्ता करते हैं ; पूरी रात निश्चिंत होकर चैन भरी नींद लेते हैं ; फिल्में देखते हैं ; यही सब हकीकत है उनके यहां की। यही उनका यानी मार्क्सवादी दर्शन है। मैं इससे सहमत नही, साथ ही इस विचार का नही हूँ। मेरे पिता गरीब थे और इस वजह से मुझे कोई ऐशो आराम नही मिला इन लोगों की तरह। किसी ने भी वैसा कड़ा और कठिन जीवन नही जिया है जैसा मैंने। किसी इंसान की जिंदगी बिना सुख और आराम के कैसी होती है यह मैं बखूबी जानता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि आर्थिक उत्थान के लिए आंदोलन जरूरी है। मैं इसके खिलाफ नही। समाज को आर्थिक प्रगति करनी ही होगी।  (14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाने के अगले दिन 15 अक्टूबर को दिए गए 2 घन्टे के भाषण का अंश) बाबा साहेब का यह पूरा भाषण मराठी में प्रबुद्ध भारत में 27 अक्टूबर को "नागपु

विभेद का निवारण..

अल्पंसख्यकों के प्रति विभेद का निवारण और उनके संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र के उप आयोग का संकल्प: 1950 है कि- ‘अल्पसंख्यकों को रक्षोपाय देने का एकमात्र उद्देश्य यह था कि जो बहुसंख्यक समुदाय  प्रतिनिधि लोकतन्त्र प्रणाली के अधीन देश का प्रशासन कर रहा है, वह उनके साथ विभेद न करे। किन्तु इसमें शर्त यह है कि अल्पसंख्यक उस राष्ट्र के प्रति निष्ठावान बने रहें जिसके वे राष्ट्रिक हैं और अपनी स्थिति का लाभ उठाकर राज्य के भीतर राज्य न बनाएं।’ हमारे देश में संविधान निर्माताओं का भी यही उद्देश्य था। हर अल्पसंख्यक समुदाय (वास्तव में तो भारत में कोई अल्पसंख्यक है ही नहीं क्यों की हम धार्मिक आधार पर उपजे देश हैं ही नहीं) को अपने सम्प्रदाय, मत, पन्थ की स्वतन्त्रता को हर परिस्थिति में सुरक्षित रखने की गारण्टी देने का प्रयास हमारे संविधान निर्माताओं ने किया, हम ये मान लेते हैं। किन्तु इसी प्रयास का उचित / अनुचित लाभ हमेशा उठाये जाने का काम होता रहा है। हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि हमारे संविधान निर्माताओं ने कहीं भी द्विराष्ट्रवाद यहाँ तक कि दोहरी नागरिकता की भी की वकालत नहीं की। किन्तु संविधान

आईने थप्पड़ भी मारते हैं..

पड़ोस के बांग्लादेशी मजहबी दंगों की बुनियाद पर तस्लीमा नसरीन के उपन्यास 'लज्जा' के हालात और उसके किरदारों.. सुरंजन, माया.. उनके माँ-बाप किरणमयी और सुधामय। सुरंजन की प्रेमिका परवीना, उसका दोस्त हैदर, मुस्लिम वेश्या शमीमा और दस साला छोटी लड़की मादल। वो उम्र में बड़ी और हिन्दू होने के नाते माया का बलात्कार और उम्र के चलते मादल का बच जाना। वो सड़कों पर उन्मादी हूजूम, हत्या, दंगे, आगजनी और बलबा....! उपन्यास के किरदार.. ये वही सुधामय थे जिन्होंने चौंसठ में अयूबशाही के विरूद्ध नारा लगाया था "पूर्वी पाकिस्तान डटकर खड़े होओ।" लेकिन बदले में देश से उन्हें क्या मिला? किरणमयी ने पचहत्तर के बाद सिंदूर लगाना छोड़ दिया तथा सुधामय ने धोती पहनना छोड़ दिया। सब कुछ मौजूद हो सकता है आपके अपने बंगाल के सीमांत जिले मालदा में जहाँ रिहाइश के मुताबिक हिन्दू आबादी संख्या में कम है। कल मालदा की घटना.. सड़कों पर लाखों की उन्मादी भीड़, आगजनी, हिंसा, हत्या.. एक नजीर हो सकती है कि अगर जमीन पर हालात मुनाफिक हों तो बजह-बेवजह.. लज्जा जैसे उपन्यासों को लिखने की स्याही देश के सूबे बंगाल में भी पैदा