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Showing posts from July, 2016

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दो आयाम : अलगाववादी क्षेत्रवाद बनाम एकीकृत राष्ट्रवाद और असम :

असमिया राष्ट्रवाद की उपज बहिरागत आंदोलन के साथ सांस्कृतिक संगठन के तौर पर आरएसएस का शुरूआती दौर से जुड़ाव और राजनैतिक मोर्चे पर भाजपा के साथ... तीन दशकों के जमीनी काम ने असम के क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन बहिरागत को आज भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित किया है। सांस्कृतिक जमीन पर राजनैतिक सक्रियता के जरिये.. सकारात्मक और क्षेत्रीय असमिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को शासन-सत्ता का बल देने के काम में भाजपा ने खुद को तैयार किया और असम राजनैतिक सत्ता में राष्ट्रवादी सरकार देखने जा रहा है। इस सबके बीच जो बेहद महत्वपूर्ण बात है... कि क्षेत्रीय राष्ट्रवाद जैसे आंदोलन से निकली असम गण परिषद और आज़ादी से पहले से वजूद में रहे असम छात्र संगठन 'आसू' से निकले इसके नेता प्रफुल्ल कुमार मोहंती इस सत्ता के साथ है। यह कोई छोटा संकेत नही है। 1971 की जनगणना में जब असम में असमी मूल, असमी भाषी लोगों की जनसंख्या 49% रह गयी तब पहली बार असम का ध्यान इस क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान पर खड़े संकट पर गया। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भा

आईने बदलिए और याद रखिए, ये साल 90 नहीं है।

तारीख : 19 जनवरी, 1990 जगह : पूरी कश्मीर घाटी विषय : आजादी "यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा" : "आजादी का मतलब क्या, ला इलाह इलिल्लाह" : "कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-ओ-अकबर कहना है" : "असि गच्ची पाकिस्तान, बताओ रोअस ते बतानेव सान" (हमें यहां अपना पाकिस्तान बनाना है, कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ लेकिन कश्मीरी पंडितों के बिना)। 14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया। टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी 90 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की निर्मम हत्या के साथ ही आतंक अपने चरम पर पहुंच गया था। घाटी में शुरू हुए इस आतंक ने धर्म को अपना हथियार बनाया और इस के निशाने पर आ गए कश्मीरी पंडित। उस समय आतंकवादियों के निशाने पर सिर्फ कश्मीरी पंडित थे। वे किसी भी कीमत पर सभी पंडितों को मारना चाहते

भारत 'से' नहीं ! भारत 'में' आजादी :

पंडित नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल तीन गैर कांग्रेसी लोगों में बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर एक वकील, विधि विशेषज्ञ के तौर पर और दूसरे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बंगाल के नामी राजनीतिज्ञ, हिन्दू महा सभा के नेता। तीसरे आर के सनमुखम चेट्टी, मद्रास के व्यापारी, आर्थिक क्षेत्र के जानकार थे। ये तीनों भारतीय आजादी की लड़ाई में कभी भी जेल नहीं गए। इनमे से एक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तथाकथित संदिग्ध मृत्यु / हत्या, आजाद भारत के साठ के दशक तक रहे गुलाम जम्मू-कश्मीर में हुई। एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान नहीं चलेंगे - यह नारा था डॉ मुखर्जी का जो कश्मीर में तिरंगा न फहराने और अलग प्रधानमन्त्री होने के विरोध में था। इस तरह एक निशान, एक प्रधान, एक विधान के नारे के साथ चलो श्रीनगर आंदोलन से कश्मीर को जमीन पर आजाद करवाने वाले पहले शहीद हुए इतिहास में। हकीकत यह भी है कि बंगाल में अगर डॉ मुखर्जी न होते तो 47 के बटवारे में पूरा बंगाल पूर्वी पाकिस्तान हुआ होता। दूसरे बाबा साहेब ने : संविधान निर्माता के तौर पर अपनी योग्यता का परिचय दिया। सबसे महत्त्व की बात जो उनके सामाजिक समता.. अवधारणा की