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Showing posts from October, 2017

देश का समभाव :

1887 में ही अलीगढ़ आंदोलन के दौरान सर सैयद अहमद खां ने अपने भाषण में कह दिया "हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग कौमें हैं और साथ-साथ नहीं रह सकतीं"। आगे चल कर मो0 अली जिन्ना ने कहा था हिन्दू और मुसलमान दो अलग "राष्ट्र" हैं जो कभी एक साथ नहीं रह सकते इसलिए मुसलमानों को अलग होमलैंड चाहिए। स्पष्ट है कि विभाजन मुसलमानों की मांग पर हुआ था और बहुसंख्यक हिन्दुओं ने इसका विरोध किया था। क्या आप और हम आज भी यह महसूस करते हैं कि जिन्ना और खां साहेब की बातें सही थीं ? पहली नजर में बहुत बड़ा आरोप दिखाई देता है यह... इसलिए बात कायदे से समझनी पड़ेगी और आधार देना होगा।  चलिए हम ये मान लेते हैं या हमें मान लेना चाहिए (मैं निजी तौर पे मानता भी हूँ) कि भारत के सन्दर्भ में जिन्ना और सर सैयद अहमद की बातें फ्रॉड थीं, बकवास थीं और वे दोनों महा-पापी थे जो उन्होंने ऐसी गंदी बात सोची.. कही। इसका सबूत है कि हमने नेहरू जी के छाया तले (जैसा की स्थापित है) भारत को सेक्युलर, साँझी विरासत वाला ऐसा देश बनाया जिसमे हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई एंड सो ऑन.. सब भाई-भाई।  'हमने देश के नागरिकों के न

'फलाने' के दक्खिन :

अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आँगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास। इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ सिंह-इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियाँ-फहानियाँ लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ 'मारवाड़ी सेवा संघ' के चौतरे पर 'राजेश ब्रदर्स' में बैठे रहते हैं ! अकसर शाम को ! ...'ए भाई ! ऊ तुमको किधर से लेखक-कवि बुझाता है जी ? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक कवि न थोड़े नु बनता है ? देखा नहीं था दिनकरवा को ? अरे, उहै रामधारी सिंघवा ? जब चदरा-ओदरा कन्हियाँ पर तान के खड़ा हो जाता था—छह फुट ज्वान; तब भह्-भह् बरता रहता था। आउर ई भोंसड़ी के अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुड़िया नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है ! कवि-लेखक अइसै होता है का ? सच्चा कहें तो नमवर-धूमिल के बाद अस्सी का साहित्य-फाहित्य गया एल.के.डी. (लौंडा के दक्खिन) ! बेटा कुंदन ! ई का है बे ? बबवा ! कीप साइलेंट.. हैव सम्मान एंड बी हैप्पी विद साहित्य की 'कठकरेजी' शैली एंड बाई हैप्पी बिकॉज : जब रंगीन कलमों से निकली गालियों को साहित्य सृजन में नई शैली का नाम