'फलाने' के दक्खिन :

अस्सी से धूमिल क्या गया, जैसे आँगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास। इधर सुनते हैं कि कोई बुढ़ऊ-बुढ़ऊ से हैं कासीनाथ सिंह-इनभर्सीटी के मास्टर जो कहानियाँ-फहानियाँ लिखते हैं और अपने दो-चार बकलोल दोस्तों के साथ 'मारवाड़ी सेवा संघ' के चौतरे पर 'राजेश ब्रदर्स' में बैठे रहते हैं ! अकसर शाम को ! ...'ए भाई ! ऊ तुमको किधर से लेखक-कवि बुझाता है जी ? बकरा जइसा दाढ़ी-दाढ़ा बढ़ाने से कोई लेखक कवि न थोड़े नु बनता है ? देखा नहीं था दिनकरवा को ? अरे, उहै रामधारी सिंघवा ? जब चदरा-ओदरा कन्हियाँ पर तान के खड़ा हो जाता था—छह फुट ज्वान; तब भह्-भह् बरता रहता था। आउर ई भोंसड़ी के अखबार पर लाई-दाना फइलाय के, एक पुड़िया नून और एक पाव मिरचा बटोर के भकोसता रहता है ! कवि-लेखक अइसै होता है का ? सच्चा कहें तो नमवर-धूमिल के बाद अस्सी का साहित्य-फाहित्य गया एल.के.डी. (लौंडा के दक्खिन) !

बेटा कुंदन ! ई का है बे ?

बबवा ! कीप साइलेंट.. हैव सम्मान एंड बी हैप्पी विद साहित्य की 'कठकरेजी' शैली एंड बाई हैप्पी बिकॉज : जब रंगीन कलमों से निकली गालियों को साहित्य सृजन में नई शैली का नाम देकर स्थापित ही नहीं, सम्मानित भी किया गया... तो फिर बात तो उस संदर्भ में उसी अंदाज़ में बनती है न ? 

उप्पर का पहला पैरा... आई हैव कोटेड फ्रॉम फ़ेमस नॉवल 'कासी का अस्सी'ज' प्रस्तावना बेs.. मी नॉट राइटिंग आल दीज... बबवा।

अबे तमीज के दलिद्दर कुंदनवा ! मतलब गाली छापोगे सरऊ तुम साहित्य के नाम पर! कौन दिया इनको अकादमी सम्मान अस्सी की गालियों पर बेs..?? बेटा बकलोल... काशीनाथ सिंह जी को 'रेहन पे रग्घू' के लिए अकादमी अवॉर्ड और लाख रुपया मिला था। 

ओह ! आई सीs...पंडी ! मतलब कलम जब 'रेहन' पे रक्खी गयी सरकारी.. तब सम्मान चूमा... अउर जब असल के बाजार में खुद की राजनैतिक , वैचारिक और दार्शनिक प्रतिबद्धता एक पैसे की भी कीमत में 'रेहन' (गिरवी) रख पाने के कठकरेज दिन सामने दिखे तो.. कलम के बीपीएल... पाल्टी के नाम, अउर झंडे को सलाम पर बुरे दिन और आपातकाल आया... भागो-भागो कर रहे हैं !

क्या करोगे बेटा दिनों का फेर है, वरना साहित्य के नाम पर ऐसी ही गालियों के स्थापन के धनी गिरोहों से लगायत... काली टीवी स्क्रीनों के काले-लाल चेहरे भी आज... कहते हैं सामाजिक-राजनैतिक विमर्शों में लोग अभद्रता की भाषा इस्तेमाल करने लगे हैं। 

कोई कलमी मजदूर, बुद्धिखोर न कहता कि यह सामाजिक-राजनैतिक विमर्श की 'कठकरेजी' शैली है जो : कहब त लाग जाइ धक्क से के असर के साथ बतियाती है।

सही कहे पंडी ! अब इन कलमी गिरोहों को ई कउन याद दिलाये कि... सेम 2 सेम कठकरेज मस्तराम जी भी लिखा करत रहे और टिरेन के टट्टीखाने में लाखों अनाम साहित्यकारों ने साहित्य से लेकर भित्ति कलाएं रची हैं। अगर तुमरी गालीबाज कलम लोकबोली का साहित्य.. तो.. उ सब लोक साहित्य के बाप भये.. का समझे !!

कुंदन !! आज तुम कुछ लूज कैरेक्टर टाइप भाषा नहीं लिख रहे हो ?

बबवा मोरे लव : तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा का फॉर्मूला अप्लाई करो और भाषा अच्छी-खराब का क्रेडिट.. काशी का अस्सी और साहित्य के रूप में शैली स्थापन के साथ सुधीजनों के स्वीकारने को दो। हाँ.. मैं साहित्य की उसी कठकरेजी शैली के महान परंपरागत साहित्यकार मस्तराम जी (मरणोपरांत कि जीते जी, ये बताना मुश्किल काम है क्योंकि पीढ़ियां न जान सकीं कि इस कलम का धनी है कौन, या था कौन)... को अकादमी सम्मान दिए जाने की पैरवी करता हूँ.. ई अउर सुन ल्यो।

(अवनीश पी.एन. शर्मा)

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