सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दो आयाम : अलगाववादी क्षेत्रवाद बनाम एकीकृत राष्ट्रवाद और असम :
असमिया राष्ट्रवाद की उपज बहिरागत आंदोलन के साथ सांस्कृतिक संगठन के तौर पर आरएसएस का शुरूआती दौर से जुड़ाव और राजनैतिक मोर्चे पर भाजपा के साथ... तीन दशकों के जमीनी काम ने असम के क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवादी आंदोलन बहिरागत को आज भारतीय राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित किया है। सांस्कृतिक जमीन पर राजनैतिक सक्रियता के जरिये.. सकारात्मक और क्षेत्रीय असमिया सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को शासन-सत्ता का बल देने के काम में भाजपा ने खुद को तैयार किया और असम राजनैतिक सत्ता में राष्ट्रवादी सरकार देखने जा रहा है। इस सबके बीच जो बेहद महत्वपूर्ण बात है... कि क्षेत्रीय राष्ट्रवाद जैसे आंदोलन से निकली असम गण परिषद और आज़ादी से पहले से वजूद में रहे असम छात्र संगठन 'आसू' से निकले इसके नेता प्रफुल्ल कुमार मोहंती इस सत्ता के साथ है।
यह कोई छोटा संकेत नही है। 1971 की जनगणना में जब असम में असमी मूल, असमी भाषी लोगों की जनसंख्या 49% रह गयी तब पहली बार असम का ध्यान इस क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान पर खड़े संकट पर गया। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी। इसने असम के लोगों और ख़ास तौर पर वहाँ के युवाओं को भावनात्मक रूप से उद्वेलित किया। असम के लोगों को लगने लगा कि बाहरी लोगों, ख़ास तौर पर बांग्लादेशियों के कारण वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन जाएँगे जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर उनकी कोई पकड़ नहीं रह जाएगी।
असम में बाहरी लोगों के खिलाफ शुरू हुआ बहिरागत आंदोलन जिसे असम आंदोलन के रूप में जाना गया और केंद्र की राजीव गांधी की सरकार के साथ एक समझौते पर खत्म हुआ। असमी क्षेत्रवाद के इस आंदोलन के विरोध के दायरे में बंगाली, बिहारी मूल के लोग भी रहे और सकारात्मक बात यह कि गैर असमी लोगों का समर्थन भी मिला इस आंदोलन को। दमन और क्रूर चुनावी हिंसा के लंबे दौर को सहते हुए लोकतांत्रिक दायरे में बने रहे इस आंदोलन ने अपनी राजनैतिक जीत भी हासिल की और 1985 के असम विधानसभा चुनावों में... असम गण परिषद की सरकार बनी।
कैसे एक क्षेत्रीय सांस्कृतिक अस्तित्व से जुड़ा आंदोलन जो अपने मुकाम पर आकर भारतीय राष्ट्रवाद में स्थापित हुआ... वह एक अलगाववादी, देश तोड़क और राष्ट्रविरोधी आंदोलन भी हो सकता था इसे देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नही। उदाहरण असम में ही मौजूद है, समकालीन है यानि लगभग एक ही समय का है, जिसे देखना बेहद जरूरी और दिलचस्प होगा।
सत्तर के दशक के अंतिम और अस्सी के दशक के शुरूआती सालों में इसी असम की जमीन से, असमी राष्ट्रीयता के ही नाम पर एक और आंदोलन और संगठन का उदय होता है : 'उल्फा'.. पूरा नाम यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम। उल्फा वैचारिक तौर पर वामपंथी दर्शन से करीबी रखता है। सैन्य संघर्ष के जरिए संप्रभु समाजवादी असम को स्थापित करने मकसद से भीमकांत बुरागोहेन, राजीव राजकोन्वर उर्फ अरबिंद राजखोवा, गोलाप बारुहा उर्फ अनूप चेतिया, सामिरन गोगोई उर्फ प्रदीप गोगोई, भद्रेश्वर गोहेन और परेश बरुहा ने 7 अप्रैल 1979 में सिबसागर के रंग घर में उल्फा की स्थापना की।1986 में उल्फा का संपर्क नैशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) और म्यांमार में सक्रिय संगठन काछिन रेबेल्स से हुआ। 1989 में इसे बांग्लादेश में कैंप लगाने की छूट मिल गई और 1990 के आते-आते उल्फा ने कई हिंसक वारदातों को अंजाम दिया। आज उल्फा एक आतंकी संगठन के तौर पर स्थापित है और हिंसा, अलगाववाद की वैचारिक जुगाली खा-कमा रहा है वाम दर्शन के सानिध्य में... शेष सभ्य समाज से बहिष्कृत।
यह बेहद साफ़ और सीधा सा फर्क है कुम्हार के सलीकेदार हाथों में कच्ची मिट्टी के पड़ने और आबाद या बर्बाद होने का। लगभग एक ही समयकाल में, एक ही राज्य और छोटी आबादी के बीच... क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक ही जमीनी मिट्टी का.. एक आंदोलन जब बदनाम आरएसएस नाम के संगठन का साथ और जमीनी सकारात्मक काम पाता है, तो अपने शुरुआत से लोकतांत्रिक रास्तों पर चलते हुए आज भारतीय राष्ट्रवाद को राजनैतिक सत्ता के तौर पर स्थापित कर रहा होता है। तो वहीं दूसरी तरफ : क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ही जमीन से उपजा असमी राष्ट्रवाद का दूसरा आंदोलन जब क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ खड़ा करने के हुनरमंद... तथाकथित आज़ादी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में बर्बादी के नारे ढोने वाले.... वामपंथी दर्शन की गोद पाता है तो उल्फा के रूप में हत्या, हिंसा, अलगाववाद, आतंकवाद, विदेशी साजिश की नकारात्मक जमीन पर उसी असम के लोगों की नफरत खा रहा होता है। लोकतांत्रिक वजूद और औकात से सस्ता होकर आतंकी की पहचान पाता है।
क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तेवर का अलगाववादी रास्ते पर भटक सकने वाला क्रांतिकारी जनांदोलन 'बहिरागत' आज असम की जमीन पर अपने उसी संकल्प को ले अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के हक-हकूक के साथ अवैध बांग्लादेशी शरणार्थी अतिक्रमण के सामने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के तौर पर खड़ा है।
कह सकते हैं असम में सांस्कृतिक अस्मिता का बहिरागत जनांदोलन... भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित हो... अपने दूसरे दौर में है।
यह कोई छोटा संकेत नही है। 1971 की जनगणना में जब असम में असमी मूल, असमी भाषी लोगों की जनसंख्या 49% रह गयी तब पहली बार असम का ध्यान इस क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान पर खड़े संकट पर गया। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी। इसने असम के लोगों और ख़ास तौर पर वहाँ के युवाओं को भावनात्मक रूप से उद्वेलित किया। असम के लोगों को लगने लगा कि बाहरी लोगों, ख़ास तौर पर बांग्लादेशियों के कारण वे अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बन जाएँगे जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर उनकी कोई पकड़ नहीं रह जाएगी।
असम में बाहरी लोगों के खिलाफ शुरू हुआ बहिरागत आंदोलन जिसे असम आंदोलन के रूप में जाना गया और केंद्र की राजीव गांधी की सरकार के साथ एक समझौते पर खत्म हुआ। असमी क्षेत्रवाद के इस आंदोलन के विरोध के दायरे में बंगाली, बिहारी मूल के लोग भी रहे और सकारात्मक बात यह कि गैर असमी लोगों का समर्थन भी मिला इस आंदोलन को। दमन और क्रूर चुनावी हिंसा के लंबे दौर को सहते हुए लोकतांत्रिक दायरे में बने रहे इस आंदोलन ने अपनी राजनैतिक जीत भी हासिल की और 1985 के असम विधानसभा चुनावों में... असम गण परिषद की सरकार बनी।
कैसे एक क्षेत्रीय सांस्कृतिक अस्तित्व से जुड़ा आंदोलन जो अपने मुकाम पर आकर भारतीय राष्ट्रवाद में स्थापित हुआ... वह एक अलगाववादी, देश तोड़क और राष्ट्रविरोधी आंदोलन भी हो सकता था इसे देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नही। उदाहरण असम में ही मौजूद है, समकालीन है यानि लगभग एक ही समय का है, जिसे देखना बेहद जरूरी और दिलचस्प होगा।
सत्तर के दशक के अंतिम और अस्सी के दशक के शुरूआती सालों में इसी असम की जमीन से, असमी राष्ट्रीयता के ही नाम पर एक और आंदोलन और संगठन का उदय होता है : 'उल्फा'.. पूरा नाम यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम। उल्फा वैचारिक तौर पर वामपंथी दर्शन से करीबी रखता है। सैन्य संघर्ष के जरिए संप्रभु समाजवादी असम को स्थापित करने मकसद से भीमकांत बुरागोहेन, राजीव राजकोन्वर उर्फ अरबिंद राजखोवा, गोलाप बारुहा उर्फ अनूप चेतिया, सामिरन गोगोई उर्फ प्रदीप गोगोई, भद्रेश्वर गोहेन और परेश बरुहा ने 7 अप्रैल 1979 में सिबसागर के रंग घर में उल्फा की स्थापना की।1986 में उल्फा का संपर्क नैशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (एनएससीएन) और म्यांमार में सक्रिय संगठन काछिन रेबेल्स से हुआ। 1989 में इसे बांग्लादेश में कैंप लगाने की छूट मिल गई और 1990 के आते-आते उल्फा ने कई हिंसक वारदातों को अंजाम दिया। आज उल्फा एक आतंकी संगठन के तौर पर स्थापित है और हिंसा, अलगाववाद की वैचारिक जुगाली खा-कमा रहा है वाम दर्शन के सानिध्य में... शेष सभ्य समाज से बहिष्कृत।
यह बेहद साफ़ और सीधा सा फर्क है कुम्हार के सलीकेदार हाथों में कच्ची मिट्टी के पड़ने और आबाद या बर्बाद होने का। लगभग एक ही समयकाल में, एक ही राज्य और छोटी आबादी के बीच... क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक ही जमीनी मिट्टी का.. एक आंदोलन जब बदनाम आरएसएस नाम के संगठन का साथ और जमीनी सकारात्मक काम पाता है, तो अपने शुरुआत से लोकतांत्रिक रास्तों पर चलते हुए आज भारतीय राष्ट्रवाद को राजनैतिक सत्ता के तौर पर स्थापित कर रहा होता है। तो वहीं दूसरी तरफ : क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ही जमीन से उपजा असमी राष्ट्रवाद का दूसरा आंदोलन जब क्षेत्रीय अस्मिता को राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ खड़ा करने के हुनरमंद... तथाकथित आज़ादी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में बर्बादी के नारे ढोने वाले.... वामपंथी दर्शन की गोद पाता है तो उल्फा के रूप में हत्या, हिंसा, अलगाववाद, आतंकवाद, विदेशी साजिश की नकारात्मक जमीन पर उसी असम के लोगों की नफरत खा रहा होता है। लोकतांत्रिक वजूद और औकात से सस्ता होकर आतंकी की पहचान पाता है।
क्षेत्रीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तेवर का अलगाववादी रास्ते पर भटक सकने वाला क्रांतिकारी जनांदोलन 'बहिरागत' आज असम की जमीन पर अपने उसी संकल्प को ले अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के हक-हकूक के साथ अवैध बांग्लादेशी शरणार्थी अतिक्रमण के सामने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के तौर पर खड़ा है।
कह सकते हैं असम में सांस्कृतिक अस्मिता का बहिरागत जनांदोलन... भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित हो... अपने दूसरे दौर में है।
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