Posts

Showing posts from 2015

17 लाख बेघर लोग : भाग (6) और अंतिम भाग (7)

कहां से : कश्मीर घाटी कौन : कश्मीरी पंडित कब से : 1989 कितने :  तकरीबन 3,00,000 हालिया केंद्र सरकार की बातों के बीच आधिकारिक रूप से राज्य सरकार कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटने के लिए कहती रही है, लेकिन क्या वहां का बहुसंख्यक समाज इस समुदाय को अपनाने के लिए तैयार हैं ? कश्मीर घाटी में हम पंडितों की वापसी का स्वागत करते हैं। इसमें हमारी तरफ से कोई रुकावट नहीं है-सैयद अली शाह गिलानी। कहने को तो बदजुबानी करने वाला ये शख्स भी यही कहता है। लेकिन हकीकत की जमीन यह नही कहती। घाटी से कश्मीरी पंडितों को विस्थापित हुए 23 साल हो गए। पंडितों की एक नई पीढ़ी सामने है और सामने है यह प्रश्न भी कि क्या कभी ये लोग वापस अपने घर कश्मीर जा पाएंगे।14 सितंबर, 1989 को भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष टिक्कू लाल टपलू की हत्या से कश्मीर में शुरू हुआ आतंक का दौर समय के साथ और वीभत्स होता चला गया। टिक्कू की हत्या के महीने भर बाद ही जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल बट को मौत की सजा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। फिर 13 फरवरी 90 को श्रीनगर के टेलीविज

17 लाख बेघर लोग : भाग (5)

यह एक दिलचस्प बात है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं लेकिन चुनाव यहां सिर्फ 87 सीटों पर ही होता है। 24 सीटें खाली रहती हैं। ये 24 सीटें वे हैं जो भारत सरकार ने कश्मीर के उस एक तिहाई हिस्से के लिए आरक्षित रखी हैं जो आज पाकिस्तान के कब्जे में है। पाक के इस हिस्से के विस्थापितों ने सरकार से कई बार कहा कि जिन 24 सीटों को आपने पीओके के लोगों के लिए आरक्षित रखा है उनमें से एक तिहाई तो यहीं जम्मू में बतौर शरणार्थी रह रहे हैं, इसलिए क्यों न इन सीटों में से आठ सीटें इन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएं। लेकिन सरकारों को इस प्रस्ताव से कोई मतलब नहीं रहा। जानकार मानते हैं कि अगर सरकार इन 24 सीटों में से एक तिहाई सीट इन पीओके रिफ्यूजिओं को दे देती है तो इससे भारत सरकार का दावा पीओके पर और मजबूत ही होगा और इससे पूरे विश्व के सामने एक संदेश भी जाएगा। इसके अलावा पीओके के विस्थापितों की मांग है कि उनका पुनर्वास भी उसी केंद्रीय विस्थापित व्यक्ति मुआवजा और पुनर्वास अधिनियम 1954 के आधार पर किया जाना चाहिए जिसके आधार पर सरकार ने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों को स्थाय

17 लाख बेघर लोग : (4)

कहां से : मीरपुर-मुजफ्फराबाद क्षेत्र (वर्तमान में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) कब से : 1947 कितने : तकरीबन 12 लाख सरकार तर्क देती है कि जब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का जम्मू और कश्मीर में विलय होगा तब इन लोगों को वहां दोबारा बसाया जाएगा। इन शरणार्थियों ने सोचा था कि बस कुछ ही दिनों की बात है, आक्रमणकारियों को खदेड़े जाने के बाद वे वापस अपने घर चले जाएंगे। लेकिन वह दिन आज तक नहीं आया। इन 12 लाख में 10 लाख आज भी जम्मू क्षेत्र में और बाकी 2 लाख देश के दूसरे हिस्सों में बसे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच पहले युद्ध की शुरुआत 22 अक्टूबर, 1947 को जम्मू-कश्मीर के मुजफ्फराबाद पर एक कबाइली हमले के रूप में हुई। फिर मीरपुर और पुंछ आदि इलाके हमलावरों का शिकार होते गए। इस हमले का एक कारण तो स्पष्ट था कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर कब्जा करना चाहता था। इसके अलावा उसकी एक और भी रणनीति थी- पूरे इलाके से हिंदुओं और सिखों को बाहर खदेड़ने की। इसमें वह सफल भी हुआ। इस क्रम में हिंसा और हत्याएं भी । उस पूरे आतंक के माहौल में मीरपुर, मुजफ्फराबाद और पुंछ आदि के उन इलाकों से बड़ी संख्या में लो

17 लाख बेघर लोग : भाग (3)

कहां से : भारत-पाकिस्तान सीमा क्षेत्र कब से : 1947-48,1965 और 1971 कितने : तकरीबन 2,00,000 भारत ने पाकिस्तान को तीनों युद्धों में हराया लेकिन अपने घर-बार गंवाकर इसकी सबसे बड़ी कीमत सीमा पर रहने वाले लोगों ने चुकाई। देश के लोग इस बात से खुश होते होंगे कि हमने पाकिस्तान को युद्ध में हर बार हराया, लेकिन ये युद्ध किसके आंगन में लड़े गए ! इनकी कीमत कौन चुका रहा है ! इसकी सुध देश ने कभी नहीं ली। 2003 से पहले बहुत बड़ी संख्या में सीमा पर रहने वाले लोग अपने घर और गांव छोड़कर हमेशा के लिए दूसरे इलाकों में जाकर बस गए। इनमें से ज्यादातर को तो सेना ने खुद उनकी जमीनें खाली करने की सलाह दी थी ताकि सेना उस पर बंकर बना सके या बारूदी सुरंगें बिछा सके। जम्मू के डिविजनल कमिश्नर ने अपने एक बयान में ऐसे लोगों की संख्या 1.50 लाख के करीब बताई थी. जानकारों का मानना है कि अगर ये लोग फिर से वापस अपने घर लौटने की सोचें भी तो नहीं जा सकते क्योंकि इनके खेतों के नीचे बारुदी सुरंगें बिछी हैं। दूसरी बात यह भी है कि सेना के कब्जे वाली इस 16,000 एकड़ जमीन पर उनको प्रवेश की अनुमति नहीं होगी। वाधवा कमेटी

17 लाख बेघर लोग : भाग (2)

कौन : हिन्दू दलित कब से : 1947 कितने :  तकरीबन 1 लाख 90 हजार पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर आए शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी भी बिना किन्हीं अधिकारों के जम्मू क्षेत्र में वैसे ही अमानवीय हालात में है जैसे में उनकी पहली पीढ़ी थी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंद्र कुमार गुजराल, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और अयोध्या दास इन चारों लोगों में एक बहुत बड़ी समानता है। ये चारों 1947 में हुए बंटवारे के दौरान अविभाजित भारत के उस हिस्से से पलायन करके भारत आए थे जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है। अयोध्या दास की इन तीनों लोगों से समानता बस यहीं समाप्त हो जाती है। जब भी देश में कश्मीरी विस्थापितों की बात चली है हमने हमेशा चर्चा में कश्मीरी पंडितों को पाया है और इनके अधिकार की बात करते हम देखे भी गए। लेकिन क्या हमें ये पता है कि साल 47 में ही पश्चिमी पाकिस्तान  के सीमा क्षेत्र से 2 लाख के लगभग और लोग भी जम्मू क्षेत्र में आये जिनमे से 95% अनुसूचित जाति के हिन्दू परिवार हैं। इस हिसाब से यह संख्या लगभग 1 लाख 90 हजार दलितों की हुई। जम्मू-कश्मी

17 लाख बेघर लोग : भाग (1)

यह चौंकाने वाली जानकारी हो सकती है कि जम्मू-कश्मीर का जम्मू क्षेत्र आज एशिया में विस्थापितों या कहें कि शरणार्थियों की सबसे घनी आबादी वाला इलाका है। मंदिरों और तीर्थस्थानों के लिए जाने जाने वाले जम्मू को भारत में शरणार्थियों की राजधानी का दर्जा भी दिया जा सकता है। जगह-जगह से विस्थापित करीब 17 लाख लोग यहां तरह-तरह के मुश्किल हालात में रहते हैं। किसी एक राज्य में चौकाने वाली लाखों की बेघर आबादी कौन है और बेघर कैसे है ? पिछले दो दशक के दौरान जब-जब जम्मू-कश्मीर में शरणार्थियों का जीवन जी रहे लोगों का जिक्र हुआ तो सबसे पहले या केवल कश्मीरी पंडितों का नाम सामने आया। कश्मीर घाटी की तकरीबन तीन लाख लोगों की यह आबादी 1989-90 के दौरान आतंकवादियों के निशाने पर आ गई थी। अपनी जमीन-जायदाद और दूसरी विरासत गंवा चुके इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा जम्मू क्षेत्र में रहते हुए घाटी में वापस लौटने का इंतजार कर रहा है। कश्मीरी पंडित काफी पढ़ी-लिखी कौम है और यह आतंकवाद का शिकार भी हुई जिससे इसकी चर्चा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लगातार होती रही. इसी दौरान बाकी के तकरीबन 14 लाख लोगों की समस्याओं

साहित्य के डॉन : प्रायोजित गैंगवारी : और : राजनैतिक सत्ता से नफरत-मुहब्बत की 'कला'धर्मिता

देश में साहित्य और साहित्यकारों के बहाने चलाये जा रहे राजनैतिक खुरापात के मद्देनज़र केंद्र की मौजूदा सरकार को चाहिए कि वे 26 जनवरी को हाथी पर वीर बालकों को बैठाकर परेड में उनकी झांकी निकालने की प्रथा फिर से शुरू कर दें। इसके साथ ही सबसे आगे एक हाथी पर उन वीर लेखकों, साहित्यकारों को बैठाने की व्यवस्था की जाए जिन्होंने सरकार का सबसे ज्यादा माल खाने के बावजूद भी उसे ठेंगा दिखा दिया हो। इससे कोई इनकार नहीं कि इस देश में सबसे वीर व्यक्ति लेखक ही होते हैं। पहले कहा जाता था कि तलवार से भी कहीं ज्यादा शक्तिशाली कलम होती है, "जहां न जाए रवि वहां जाए कवि".. पर अब लगता है कि शायद यह कहावतें बनाने वालों को यह नहीं पता था कि इस क्षेत्र में कितने निर्लज्ज लोग आ जाएंगे जो कि बेशर्मी और अहसानफरामोशी के ऐसे मानक स्थापित करेंगे कि उनके सामने नेता तो क्या सस्ता गिरोहबाज भी शरमा जाएं। इस क्रम में मौजूदा साहित्य सम्मान वापसी नौटंकी के सन्दर्भ में मुख्य गिरोहबाज श्री अशोक वाजपेयी की बात करें तो उनकी ख्याति सरकार पोषित संस्कृतिकर्मी के रूप में रही है, जिसे अर्जुन सिंह के कांग्रेसी राज की स

बोहनी.....

बहुत सोचते विचारते और अझुराते आखिर ब्लॉगिंग के कोप से पित्त का मिलन करा 'पितकोप' ले, आ ही गया हूँ। लिखना पढ़ना भी शुरू हो ही जायेगा। अवनीश