17 लाख बेघर लोग : भाग (2)

कौन : हिन्दू दलित

कब से : 1947

कितने :  तकरीबन 1 लाख 90 हजार

पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मू-कश्मीर आए शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी भी बिना किन्हीं अधिकारों के जम्मू क्षेत्र में वैसे ही अमानवीय हालात में है जैसे में उनकी पहली पीढ़ी थी।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंद्र कुमार गुजराल, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और अयोध्या दास इन चारों लोगों में एक बहुत बड़ी समानता है। ये चारों 1947 में हुए बंटवारे के दौरान अविभाजित भारत के उस हिस्से से पलायन करके भारत आए थे जिसे आज पाकिस्तान कहा जाता है। अयोध्या दास की इन तीनों लोगों से समानता बस यहीं समाप्त हो जाती है।

जब भी देश में कश्मीरी विस्थापितों की बात चली है हमने हमेशा चर्चा में कश्मीरी पंडितों को पाया है और इनके अधिकार की बात करते हम देखे भी गए। लेकिन क्या हमें ये पता है कि साल 47 में ही पश्चिमी पाकिस्तान  के सीमा क्षेत्र से 2 लाख के लगभग और लोग भी जम्मू क्षेत्र में आये जिनमे से 95% अनुसूचित जाति के हिन्दू परिवार हैं। इस हिसाब से यह संख्या लगभग 1 लाख 90 हजार दलितों की हुई।

जम्मू-कश्मीर में शरणार्थियों का जीवन बिता रहे ये लोग राज्य और देश की केंद्र सरकार द्वारा थोपी गई एक ऐसी अमानवीय उपेक्षा के शिकार हैं जिसने इनका जीवन गुलामों सरीखा बना दिया है। पिछले 67 साल से राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के बिना रह रहे इन लोगों की त्रासदी इस मायने में और भयावह है कि जब-जब अपने बुनियादी अधिकारों के लिए इन्होंने आवाज उठाई, उसे व्यवस्था ने न सिर्फ अनसुना किया बल्कि कई बार इनके आगे जाने के रास्तों को और भी अवरुद्ध कर दिया।

पश्चिमी पाकिस्तान के सबसे करीब जम्मू पड़ता था। इसलिए इलाके के ज्यादातर लोग जम्मू-कश्मीर के इस हिस्से में आ गए। कई लोग देश के अन्य राज्यों में भी पहुंचे जहां इन लोगों का पुनर्वास हुआ और उन्हें भारतीय नागरिकता भी दी गई। धीरे-धीरे ये सभी लोग बाकी समाज के साथ मुख्यधारा में आ गए। मगर उस दौरान जो लोग जम्मू-कश्मीर आए उन्हें इस बात का आभास तक नहीं था कि जिस त्रासदी से बचने के लिए वे वहां आए हैं उससे बुरी स्थितियां उनका इंतजार कर रही हैं। पलायन के बाद जिन परिस्थितियों में उन्होंने शरणार्थियों के रूप में जीवन शुरू किया था, आज उनकी तीसरी पीढ़ी भी उन्हीं मुश्किलों का सामना कर रही है। पश्चिमी पाकिस्तान से आए इन शरणार्थियों की पीड़ा जब हद से गुजर गई तो 1981 में इन लोगों ने सरहद पार करके वापस पाकिस्तान जाने की भी कोशिश की। ये लोग बड़ी तादाद में भारत-पाकिस्तान सरहद के पास इकट्ठा हो गए तो वहां तैनात दोनों देशों की सेनाएं हरकत में आ गईं। तब शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने इन तक अपना संदेश भेजकर इन्हें आश्वासन दिया कि इनके साथ जल्द न्याय होगा। उस पूरे आंदोलन में इस समाज का कहना था कि "हमारे साथ न्याय करें या फिर हमें वापस पाकिस्तान भेज दें।’

इन लोगों को उम्मीद बंध गई कि अब जल्द ही अन्य शरणार्थियों की तरह उनका भी पुनर्वास कर दिया जाएगा। उन्हें भी तमाम नागरिक और राजनीतिक अधिकार दिए जाएंगे लेकिन समय निकलता गया। इन लोगों की तरफ न केंद्र सरकार ने कोई ध्यान दिया और न राज्य सरकार ने। आखिरकार समुदाय के लोगों ने अपने अधिकारों को लेकर आवाज उठानी शुरू की। लेकिन उस समय राज्य सरकार की तरफ से जो जवाब इन्हें मिला उसकी कल्पना इन्होंने सपने में भी नहीं की थी। सरकार ने कहा कि ये लोग जम्मू-कश्मीर राज्य के सबजेक्ट नहीं है इसीलिए इन्हें वे सारे अधिकार नहीं मिल सकते जो यहां के लोगों को मिलते हैं। इनमें सबसे बड़ा अधिकार था राजनीतिक अधिकार। अर्थात राज्य में होने वाले चुनावों में मतदान करने का अधिकार। ये लोग न तो जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनावों में वोट डाल सकते हैं और न ही स्थानीय चुनावों में। यहां तक कि पंचायत के चुनावों में भी इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं है।

भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति होने के कारण यहां के लोगों को भारतीय नागरिकता के साथ स्थायी निवास प्रमाण पत्र भी दिया जाता है। ये प्रमाण पत्र सिर्फ उन लोगों को दिया जाता है जिन्हें जम्मू-कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद छह स्टेट सब्जेक्ट कहता है। स्टेट सब्जेक्ट वही हो सकते हैं जिनके पूर्वज 14 मई, 1954 तक राज्य में कम से कम 10 साल रह चुके हों। स्टेट सब्जेक्ट होना एक तरह से राज्य की नागरिकता का काम करता है। इसके अभाव में इन लोगों के सामने अनंत समस्याओं की लाइन लग जाती है। ये लोग राज्य में किसी तरह की जमीन-जायदाद नहीं खरीद सकते। इन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। इन शरणार्थियों में से ज्यादातर लोग आज भारत-पाक सीमा के पास खाली पड़ी सरकारी जमीन पर अपने झोपड़े बना करके रह रहे हैं। सरकारी रोजगार नहीं मिलने के कारण समुदाय के लगभग 90 फीसदी लोग मजदूरी या दूसरे छोटे-मोटे काम करके किसी तरह अपने परिवार का पेट पालते हैं।

इन शरणार्थियों की तरफ से एक बात और कही जाती है कि प्रदेश की हर सरकार ने इस बात का विशेष ख्याल रखा कि उनमें से कोई भी कश्मीर घाटी में न घुसने पाए। स्थिति अपने आप इस बात को सही करार देती है। वेस्ट पाकिसान के रिफ्यूजियों को तो छोड़िए अन्य विस्थापितों को ही देख लीजिए। कोई भी कश्मीर में नहीं है। सबको जम्मू खदेड़ दिया गया। रिफ्यूजियों को कश्मीर में प्रवेश करने से हमेशा रोका गया। पीड़ित यहां तक आरोप लगाते रहे हैं कि चूंकि वे हिंदू हैं और हिंदुओं में भी अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखते हैं इसलिए कश्मीर केंद्रित तथा ख़ास धार्मिक प्रभुत्व वाली प्रदेश की राजनीति में उनकी कोई सुनवाई नहीं।

पुनर्वास की ये स्थिति और इनकी वर्तमान दशा भी बयान करती है कि सरकारों के पास इस सूबे में पुनर्वास की योजना है लेकिन इसकी जद में वे आते हैं जो भले ही लोगों की हत्या करने वाले आतंकवादी ही क्यों न हों। जिन लोगों ने घाटी में पत्थर को हथियार बनाकर आतंक फैलाया उनको देने के लिए भी सरकार के पास मुआवजा है। लेकिन जो दलित पिछले 67 साल से तिल-तिल कर मर रहे हैं उनके बारे में कभी नहीं सोचा गया।

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