17 लाख बेघर लोग : भाग (5)
यह एक दिलचस्प बात है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 111 सीटें हैं लेकिन चुनाव यहां सिर्फ 87 सीटों पर ही होता है। 24 सीटें खाली रहती हैं।
ये 24 सीटें वे हैं जो भारत सरकार ने कश्मीर के उस एक तिहाई हिस्से के लिए आरक्षित रखी हैं जो आज पाकिस्तान के कब्जे में है। पाक के इस हिस्से के विस्थापितों ने सरकार से कई बार कहा कि जिन 24 सीटों को आपने पीओके के लोगों के लिए आरक्षित रखा है उनमें से एक तिहाई तो यहीं जम्मू में बतौर शरणार्थी रह रहे हैं, इसलिए क्यों न इन सीटों में से आठ सीटें इन लोगों के लिए आरक्षित कर दी जाएं। लेकिन सरकारों को इस प्रस्ताव से कोई मतलब नहीं रहा।
जानकार मानते हैं कि अगर सरकार इन 24 सीटों में से एक तिहाई सीट इन पीओके रिफ्यूजिओं को दे देती है तो इससे भारत सरकार का दावा पीओके पर और मजबूत ही होगा और इससे पूरे विश्व के सामने एक संदेश भी जाएगा।
इसके अलावा पीओके के विस्थापितों की मांग है कि उनका पुनर्वास भी उसी केंद्रीय विस्थापित व्यक्ति मुआवजा और पुनर्वास अधिनियम 1954 के आधार पर किया जाना चाहिए जिसके आधार पर सरकार ने पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों को स्थायी तौर पर पुनर्वासित किया था।
इन शरणार्थियों में उन लोगों की समस्या और भी गंभीर है जो रोजगार या किसी अन्य कारण से भारत के किसी और राज्य में रह रहे हैं। दशकों पहले इस इलाके में आये और अब शेष भारत में भी पसरे इन लोगों के घरवाले 1947 के कत्लेआम में जम्मू आ गए। वहां सरकार की तरफ से कोई मदद मिली नहीं। आखिर कितने दिनों तक भूखे रहते, रोजगार के सिलसिले में दिल्ली और दूसरी जगहों पर आ गए। अब जब ये राज्य सरकार की किसी नौकरी के लिए आवेदन करना चाहते हैं तो इनसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग होती है। इनसे राशन कार्ड और बाकी दस्तावेज मांगे जाते हैं। सोचा जा सकता है कि ये लोग इतने साल बाद ये सब कहां से लाएं। इनके पास पास फॉर्म ए है जो सभी पीओके रिफ्यूजिओं को सरकार ने दिया था। ये यहीं के नागरिक हैं, लेकिन इनसे स्टेट सब्जेक्ट की मांग हो रही है।
12 लाख के करीब इन पीओके शरणार्थियों को आज तक उनके उन घरों, जमीन और जायदाद का कोई मुआवजा नहीं मिला जो पाकिस्तान के कब्जे में चले गये हैं। जानकार बताते हैं कि सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में चले गए इनके घरों और जमीनों का मुआवजा इसलिए नहीं दिया ताकि पाकिस्तान को यह संदेश न जाए कि भारत ने उस क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ दिया है।
इन शरणार्थियों में नाराजगी इस बात को लेकर भी है कि एक तरफ सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे में चली गई इनकी संपत्ति का कोई मुआवजा इन्हें नहीं दिया दूसरी तरफ यहां से जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए, उनकी संपत्तियों पर कस्टोडियन बिठा दिया जो उनके घरों और संपत्तियों की देख-रेख करता है।
एक और परेशानी काबिलेगौर है। 1947 में पलायन करने वाले लोगों में से बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जिनका जम्मू-कश्मीर बैंक की मीरपुर शाखा में पैसा जमा था। पलायन के बाद जब लोग यहां आए और बैंक से अपना पैसा मांगा तो बैंक ने उनके दावे खारिज कर दिए। बैंक का कहना था कि उसकी मीरपुर शाखा पाकिस्तान के कब्जे में चली गई है और उसका रिकॉर्ड भी पाकिस्तान के कब्जे में है इसलिए वह कुछ नहीं कर सकते। यह एक तरह का फ्रॉड है। दुनिया के हर बैंक के मुख्यालय को इस बात की पूरी जानकारी होती है कि उसकी किस शाखा में किस व्यक्ति का कितना पैसा जमा है। जम्मू-कश्मीर बैंक का मुख्यालय यहां श्रीनगर में तब भी था और आज भी है। ऐसे में यह बात समझ से परे है कि इन लोगों को नहीं पता था कि बैंक की मीरपुर ब्रांच में किन लोगों के खाते थे।
कैंप में रहने वाले ये लोग पहले वहां बने कपड़ों के टेंटों में रहे, कुछ समय बाद वो फट गये तो लोगों ने मिट्टी के झोपडे़ बना कर रहना शुरू किया। अपना सब कुछ गवां के आये इन लोगों के पास घर के नाम पर यही झोपड़े हैं जिसमें ये दशकों से रह रहे हैं। यह जमीनें भी इनके नाम पर नहीं है। सरकार जब चाहेगी इन्हें यहां से खदेड़ देगी।
लोगों को इस बात की उम्मीद कम ही है कि सरकार इन्हें शरणार्थी का दर्जा देगी। पीओके से आए इन शरणार्थियों की समस्या के पीछे राज्य के कश्मीरी मूल के नागरीकों और बाकी लोगों के बीच की गहरी खाई को जिम्मेदार मानना कोई गलत नहीं होगा। ये भी इसी राज्य के नागरिक हैं लेकिन कश्मीरी नहीं हैं, इसीलिए इनकी यह हालत है। इन 17 लाख विस्थापितों के आंकड़ों के सामने आबादी की जमीनी हकीकत देखी जाय तो जम्मू कश्मीर में लगभग 25 फीसदी कश्मीरियों ने पूरी सत्ता पर कब्जा कर रखा है और वे इसमें राज्य के अन्य लोगों को साझेदार बनाने को तैयार नहीं हैं।
भाग 6 में जारी...
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