हिंसक कौन : केरल !

केरल में चुनावी हिंसा, हत्याओं का पुराना इतिहास रहा है। साल 2012 में सीपीएम के नेता रहे टी.पी. चंद्रसेखरन की काट-काट कर की गई बर्बर हत्या इसी सिलसिले की कड़ी कही जायेगी। अफ़सोस कि हाल के विधानसभा चुनावों से पहले और वाम एलडीएफ की जीत के बाद भी हिंसा-हत्या का सिलसिला कन्नूर तक चल ही रहा है।
चौंकिएगा नहीं, राजनैतिक विरोध में टी.पी. चंद्रसेखरन की साल 2012 में क्रूर और मध्ययुगीन शैली ये यह हत्या, कम्युनिस्ट पार्टी... सीपीएम की ही तरफ़ से की गई, वजह ये कि चंद्रशेखरन ने पार्टी की नीतियों की आलोचना कर एक दूसरी पार्टी, 'रेवेल्यूश्नरी मार्कसिस्ट पार्टी' बना ली थी।
"सीपीएम लोगों की ज़िंदगी में घुस गया है, यहां तक की गांववालों को अपने घर की शादी में कांग्रेस-समर्थक दोस्त तक को बुलाने की आज़ादी नहीं है, अब ऐसे में लोगों और असलहे के बल के साथ आरएसएस अपना प्रचार करेगा तो हिंसा तो होगी ही" : यह कहना है सम्मानित मलयालम लेखक और राजनीतिक विश्लेषक पॉल ज़कारिया का।
तो फिर सवाल उठता है केरल की राजनीति में हिंसा, इंसानी हत्याएं करता कौन है ? बीते चार दशकों के दौरान अकेले 200 से ज्यादा घोषित राजनैतिक हत्याएं खुद से जुड़े लोगों की किये जाने का दावा करता है आरएसएस।
केरल में भाजपा का एक निर्वाचित विधायक कोई बड़ी समस्या नही होनी चाहिए वाम गठबंधन की एलडीएफ सरकार के लिए लेकिन चुनावों में भाजपा को हासिल 15 प्रतिशत वोट और सांस्कृतिक जमीन पर संघ की जमीनी पहुंच एक बड़ी चिंता का सबब है।
केरल में संघ और भाजपा के साथ आता कॉडर और कार्यकर्ता सीपीएम से ही हैं ज्यादातर यह एक रोचक पहलू है राज्य की बदलती राजनीति का। संतोष और भली बात यह है कि सीपीएम छोड़ कर भाजपा से जुड़ते लोग इसकी सबसे बड़ी और एकमात्र वजह राज्य में सीपीएम और वाम दलों द्वारा प्रायोजित हिंसा और हत्याएं ही बताते हैं। लेकिन राज्य के ग्रामीण इलाकों और वामपंथी प्रभुत्व के बीच जमीन पर नाक से नाक मिला कर खड़ा होने में इन्ही पूर्व सीपीएम काडरों की बड़ी भूमिका है.. यह भी सच है। इस ठेठ वामपंथी शैली और तेवर में ही जबाब देने की क्षमता को बेहतर पहचानते हुए सीपीएम इस बात को मानती है कि जमीन पर उसे चुनौती अब आरएसएस से वैचारिक और भाजपा से राजनैतिक फ्रंट पर है।
पश्चिम बंगाल में तीन से अधिक दशकों के वामपंथी सत्ता का अंत और अभी बीते विधानसभा चुनावों ने बंगाल में वामपंथ के अस्तित्व पर ही जो सवालिया निशान ममता बनर्जी ने लगाया है उसे जरा यहां देखने की जरूरत है। तृणमूल ने बंगाल में जमीन पर सीपीएम और वामपंथी कॉडर, कार्यकर्ता सहित राजनीति की हिंसा आधारित शैली को खुद से जोड़ा और सीपीएम के खेमे से बाहर के लोगों के समर्थन में टक्कर देने जमीन पर हर तरह की जबाबी संभावनाओं के साथ खड़े नजर आने लगे। इसने प्रतिरोध को एक आधार दिया और बड़ा वोट आज ममता और तृणमूल के साथ हैं। नियति का खेल देखिये... बंगाल में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने तक की मजबूरी तक पहुंची सीपीएम और वामदल कहीं कोई राजनितिक जीवन न पा सकें : इसके चलते बंगाल के वोटर ने ममता को एक तरफा वोट दिया। यह आलम है वाम से नफरत का उस बंगाल में जो देश में उसकी वैचारिक मातृभूमि जैसी रही है।
भाजपा के 15 % वोट और एक निर्वाचित विधायक कहीं वामपंथ के दूसरे और एकमात्र बचे केरल मॉडल के अस्तित्व अधिग्रहण की औपचारिक शुरुआत तो नहीं ?
बंगाल में टीएमसी के हाथों वाम के अस्तित्व अधिग्रहण के मूल मंत्र की याद करें और एक विज्ञापन का ध्यान धरें : जब वही सफेदी और चमक कम दामों में मिले, तो कोई वो क्यों ले ! ये न ले ?

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