साहित्य के डॉन : प्रायोजित गैंगवारी : और : राजनैतिक सत्ता से नफरत-मुहब्बत की 'कला'धर्मिता

देश में साहित्य और साहित्यकारों के बहाने चलाये जा रहे राजनैतिक खुरापात के मद्देनज़र केंद्र की मौजूदा सरकार को चाहिए कि वे 26 जनवरी को हाथी पर वीर बालकों को बैठाकर परेड में उनकी झांकी निकालने की प्रथा फिर से शुरू कर दें। इसके साथ ही सबसे आगे एक हाथी पर उन वीर लेखकों, साहित्यकारों को बैठाने की व्यवस्था की जाए जिन्होंने सरकार का सबसे ज्यादा माल खाने के बावजूद भी उसे ठेंगा दिखा दिया हो।

इससे कोई इनकार नहीं कि इस देश में सबसे वीर व्यक्ति लेखक ही होते हैं। पहले कहा जाता था कि तलवार से भी कहीं ज्यादा शक्तिशाली कलम होती है, "जहां न जाए रवि वहां जाए कवि".. पर अब लगता है कि शायद यह कहावतें बनाने वालों को यह नहीं पता था कि इस क्षेत्र में कितने निर्लज्ज लोग आ जाएंगे जो कि बेशर्मी और अहसानफरामोशी के ऐसे मानक स्थापित करेंगे कि उनके सामने नेता तो क्या सस्ता गिरोहबाज भी शरमा जाएं।

इस क्रम में मौजूदा साहित्य सम्मान वापसी नौटंकी के सन्दर्भ में मुख्य गिरोहबाज श्री अशोक वाजपेयी की बात करें तो उनकी ख्याति सरकार पोषित संस्कृतिकर्मी के रूप में रही है, जिसे अर्जुन सिंह के कांग्रेसी राज की सरपरस्ती में फलने-फूलने का मौका मिला। उसके जरिए उन्होंने सत्ता तंत्र से लगायत संस्कृति की दुनिया में जबर्दस्त पैठ बनाई। आज सांप्रदायिकता के विरोध में लेखकीय समाज के सम्मान वापसी अभियान की अगुआई उन्होंने ही संभाल रखी है। लेकिन यह भी सच है कि जिस नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली मौजूदा सरकार के विरोध में यह अभियान वे चला रहे हैं, उसकी पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की ही कृपा से वे वर्धा के केंद्रीय महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर हाजिर-नाजिर रहे और वर्धा से करीब ग्यारह सौ किलोमीटर दूर दिल्ली में विश्वविद्यालय का सालों तक कुलपति कार्यालय चलाते रहे। तब उन्हें नैतिकता का कोई संकट नहीं था। अब यह ज्ञात तथ्य है कि तीन हजार से ज्यादा लोगों की मौत की वजह दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के खलनायक वारेन एंडरसन को उनके ही आका अर्जुन सिंह ने देश से भागने में मदद दी थी। तब अशोक वाजपेयी मध्य प्रदेश सरकार के ताकतवर सांस्कृतिक नौकरशाह थे। लेकिन उन्हें तब भी परेशानी नहीं हुई। तब देश की बहुलतावादी संस्कृति पर उन्हें खतरा नजर नहीं आया। भोपाल गैस त्रासदी की वजह से पूरा देश सदमे और शोक में था, तब उन्होंने भोपाल के भारत भवन में पहले से तय कवि सम्मेलन यह कहते हुए नहीं टाला था कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता।

वैसे राजधानी दिल्ली में दबी जुबान में यह भी कहा जा रहा है कि संस्कृति के इस शहंशाह को मौजूदा सरकार भाव नहीं दे रही और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से उनके रिश्ते ठीक नहीं हैं..माना जा रहा है कि शायद यही वजह है कि उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने और सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए यह अभियान शुरू किया है...

ऐसे में अगर हिंदी के शीर्ष और शलाका पुरूष नामवर सिंह यह कहते हैं कि अकादमी और भारत सरकार का सम्मान वापस करके दरअसल लेखक सुर्खियां बटोर रहे हैं, तो उस पर भरोसा ना करने का कोई कारण नजर नहीं आता। हिंदी के लेखकों का संकट यह भी है कि अपनी तमाम मूर्धन्य रचनाधर्मिता के बावजूद भारतीय समाज उन्हें तवज्जो नहीं देता। कलिकथा वाया बाईपास जैसे उपन्यास की लेखिका अलका सरावगी ने फेसबुक पर पुरस्कार वापस न करने के लिए भी सफाई दी है। सरावगी कारोबारी परिवार की बेटी और बहू हैं। उन्हें पैसे की कमी नहीं है। लेकिन सवाल उसूलों का है। लिहाजा उन्होंने लिखा है कि वे इसलिए पुरस्कार नहीं वापस कर रहीं, क्योंकि उन्हें इसे किसी सरकार ने नहीं दिया है। जब जरूरत होगी तो वे राजसत्ता के खिलाफ बोलेंगी और लिखेंगी। लेकिन जनता के पैसे से चल रही स्वायत्त अकादमी के सम्मान को वापस करके वे अकादमी और भारत के लोगों का अपमान नहीं कर सकतीं। सरावगी के इस बयान से जाहिर है कि वापस कर रहे लोगों ने सम्मान वापसी का दबाव उन पर भी बनाया था। लेखकों के मौजूदा अभियान से सिर्फ एक ही संदेश जा रहा है..कि यह विरोध महज नरेंद्र मोदी के विरोध के लिए है। अगर ऐसा है तो आने वाले दिनों में मोदी विरोधी अभियान चलाने वालों को आम लोगों के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।

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