स्वतंत्रता के बाद कला संस्कृति में वैचारिक पक्षपात एवं मोदी सरकार में पारदर्शिता :

समृद्ध संस्कृति, कला और विरासत की भूमि है भारत जहाँ लोगों में इंसानियत, उदारता, एकता, धर्मनिर्पेक्षता, मजबूत सामाजिक संबंध और दूसरे अच्छे गुण हैं। दूसरे धर्मों के लोगों द्वारा ढ़ेर सारी क्रोधी क्रियाओं के बावजूद भी भारतीय हमेशा अपने दयालु और सौम्य व्यवहार के लिये जाने जाते हैं। अपने सिद्धांतों और विचारों में बिना किसी बदलाव के अपनी सेवा-भाव और शांत स्वाभाव के लिये भारतीयों की हमेशा तारीफ होती है।

भारतीय संस्कृति की विशेषताओं पर बिन्दुवार कुछ बातें देखी जा सकती हैं।

प्राचीनता -

भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। मध्य प्रदेश के भीमबेटका में पाये गये शैलचित्र, नर्मदा घाटी में की गई खुदाई तथा कुछ अन्य नृवंशीय एवं पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत भूमि आदि मानव की प्राचीनतम कर्मभूमि रही है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के विवरणों से भी प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पाँच हज़ार वर्ष पहले उत्तरी भारत के बहुत बड़े भाग में एक उच्च कोटि की संस्कृति का विकास हो चुका था। इसी प्रकार वेदों में परिलक्षित भारतीय संस्कृति न केवल प्राचीनता का प्रमाण है, अपितु वह भारतीय अध्यात्म और चिन्तन की भी श्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भारतीय संस्कृति से रोम और यूनानी संस्कृति को प्राचीन तथा मिस्र, असीरिया एवं बेबीलोनिया जैसी संस्कृतियों के समकालीन माना गया है।

निरन्तरता -

भारतीय संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी यह संस्कृति आज भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृतियों अपने मूल स्वरूप को लगभग विस्मृत कर चुकी हैं। भारत में नदियों, वट, पीपल जैसे वृक्षों, सूर्य तथा अन्य प्राकृतिक देवी - देवताओं की पूजा अर्चना का क्रम शताब्दियों से चला आ रहा है। देवताओं की मान्यता, हवन और पूजा-पाठ की पद्धतियों की निरन्तरता भी आज तक अप्रभावित रही हैं। वेदों और वैदिक धर्म में करोड़ों भारतीयों की आस्था और विश्वास आज भी उतना ही है, जितना हज़ारों वर्ष पूर्व था। गीता और उपनिषदों के सन्देश हज़ारों साल से हमारी प्रेरणा और कर्म का आधार रहे हैं। किंचित परिवर्तनों के बावजूद भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्त्वों, जीवन मूल्यों और वचन पद्धति में एक ऐसी निरन्तरता रही है, कि आज भी करोड़ों भारतीय स्वयं को उन मूल्यों एवं चिन्तन प्रणाली से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं और इससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

लचीलापन एवं सहिष्णुता -

भारतीय संस्कृति की सहिष्णु प्रकृति ने उसे दीर्घ आयु और स्थायित्व प्रदान किया है। संसार की किसी भी संस्कृति में शायद ही इतनी सहनशीलता हो, जितनी भारतीय संस्कृति में पाई जाती है। भारतीय हिन्दू किसी देवी - देवता की आराधना करें या न करें, पूजा-हवन करें या न करें, आदि स्वतंत्रताओं पर धर्म या संस्कृति के नाम पर कभी कोई बन्धन नहीं लगाये गए। इसीलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिन्दू धर्म को धर्म न कहकर कुछ मूल्यों पर आधारित एक जीवन-पद्धति की संज्ञा दी गई और हिन्दू का अभिप्राय किसी धर्म विशेष के अनुयायी से न लगाकर भारतीय से लगाया गया। भारतीय संस्कृति के इस लचीले स्वरूप में जब भी जड़ता की स्थिति निर्मित हुई तब किसी न किसी महापुरुष ने इसे गतिशीलता प्रदान कर इसकी सहिष्णुता को एक नई आभा से मंडित कर दिया। इस दृष्टि से प्राचीनकाल में बुद्ध और महावीर के द्वारा, मध्यकाल में शंकराचार्य, कबीर, गुरु नानक और चैतन्य महाप्रभु के माध्यम से तथा आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द एवं महात्मा ज्योतिबा फुले के द्वारा किये गए प्रयास इस संस्कृति की महत्त्वपूर्ण धरोहर बन गए।

ग्रहणशीलता -

भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता एवं उदारता के कारण उसमें एक ग्रहणशीलता प्रवृत्ति को विकसित होने का अवसर मिला। वस्तुत: जिस संस्कृति में लोकतन्त्र एवं स्थायित्व के आधार व्यापक हों, उस संस्कृति में ग्रहणशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से ही उत्पन्न हो जाती है। हमारी संस्कृति में यहाँ के मूल निवासियों ने समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण जैसी प्रजातियों के लोग भी घुलमिल कर अपनी पहचान खो बैठे।

भारत में इस्लामी संस्कृति का आगमन भी अरबों, तुर्कों और मुग़लों के माध्यम से हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति का पृथक अस्तित्व बना रहा और नवागत संस्कृतियों से कुछ अच्छी बातें ग्रहण करने में भारतीय संस्कृति ने संकोच नहीं किया। ठीक यही स्थिति यूरोपीय जातियों के आने तथा ब्रिटिश साम्राज्य के कारण भारत में विकसित हुई ईसाई संस्कृति पर भी लागू होती है। यद्यपि ये संस्कृतियाँ अब भारतीय संस्कृतियों का अभिन्न अंग है, तथापि ‘भारतीय इस्लाम’ एवं ‘भारतीय ईसाई’ संस्कृतियों का स्वरूप विश्व के अन्य इस्लामी और ईसाई धर्मावलम्बी देशों से कुछ भिन्न है। इस भिन्नता का मूलभूत कारण यह है कि भारत के अधिकांश मुसलमान और ईसाई मूलत: भारत भूमि के ही निवासी हैं। सम्भवत: इसीलिए उनके सामाजिक परिवेश और सांस्कृतिक आचरण में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया और भारतीयता ही उनकी पहचान बन गई।

मार्क ट्वेन ने 1856 में जब भारत का दौरा किया था तो उसने लिखा था, भारत सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण राष्ट्र है। वैसे भी समय-समय पर कई विदेशी विद्वानो ने भारत का दौरा किया और यहाँ की संस्कृति को दूनिया मे सबसे उन्नत माना। यही हमारी संस्कृति है, और हम सभी भारतीयो को इस पर गर्व है।
लेकिन दुख की बात यह कि आजादी के बाद स्वतंत्र भारत में भारतीय संस्कृति और कला की घोर उपेक्षा महज राजनैतिक स्वार्थ और उद्देश्यों के तहत की जाती रही। भारतीय कलाओं की बात हो या भारतीयता से रिश्ता रखने वाले किसी भी तत्व से, आजादी के बाद से लगातार चली आ रहीं राजनैतिक सत्ताओं ने सौतन सा व्यवहार किया। नवाचार के तथाकथित अवधारणाओं के नाम पर, तो कभी राजनैतिक तुष्टिकरण करते हुए लगातार भारतीय संस्कृति और कलाओं को अपमानित करने का एक अंतहीन सिलसिला शुरू किया गया। 

मई 2014 में वर्तमान केंद्र सरकार के आने के बाद से राष्ट्रवाद लगातार अपने स्थापन में आगे बढ़ता नजर आने लगा है। भारतीय संस्कृति और कलाओं के उत्थान के लिए वर्तमान केंद्र सरकार मजबूती से न सिर्फ खड़ी दिखती है, अपितु इस दिशा में सक्रियता भी नजर आती है। 

देश में दूषित राजनीतिक मंशा से खड़ा किये अनर्गल तरीके से सहिष्णुता खोजने के उपक्रम हों, या कला-सम्मान वापसी जैसे वैचारिक विरोध के आयोजन। हारे हुए राजनैतिक विपक्ष ने एक कलुषित माहोल बनाने का प्रयास किया, लेकिन न देश की जनता ने इसे कान दिया और न ही रचनाधर्मिता में लगे कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने बहुत समर्थन किया। नतीजा रहा कि कुछ वैचारिक-दार्शनिक विरोधियों को छोड़ इन नकारात्मक आंदोलनों को कहीं भी जगह नहीं मिली। 

निश्चित ही भारतीय राष्ट्रवाद के इस वर्तमान दौर में भारतीय संस्कृति और कलाओं को अपना स्थान वापस पाने, टूवर की स्थिति से बाहर आने के संकेत दिखने शुरू ही नहीं हुए बल्कि अब गति पकड़ रहे हैं। सुखद यह है कि हमारे भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी इसके ध्वजवाहक और मार्गदर्शक की भूमिका में देश के सामने हैं। वेशभूषा हो, अथवा खान-पान, विदेशी दौरों के समय भारतीय भाषाओं में संवाद हो, या भारतीय लोककलाओं, प्राचीन परंपराओं का निर्वहन की बात हो, प्रधानमंत्री ब्रांड एंबेसडर के तौर पर खड़े दिखते हैं। सरकार के काम-काज में भी यह सकारात्मकता दिखती है। पद्म सम्मानों की बात करें तो भारतीय पुरातन कला और संस्कृति को जगह मिलने लगी है। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार द्वारा देश में लगातार आयोजित संस्कृति महोत्सवों की भूमिका भी अब जमीन पर दिखने लगी है। 

आजादी के बाद से अभी तक की यात्रा का अगर पुनरावलोकन किया जाय तो हम साफ महसूस कर सकेंगे कि भारत में भारतीयता का उभार ही नहीं, वरन पुनर्स्थापन हुआ है, जो सतत आगे गति पकड़ता दिख रहा है, जो शुभ है.. मंगलकारी है।

(अवनीश पी. एन. शर्मा)

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